Sunday, October 25, 2015

हदीस क्या है ?


بِسْــــــــــــــــــمِ اﷲِالرَّحْمَنِ اارَّحِيم
हदीस क्या है ?

हदीस - हदीस एक अरबी लफ़्ज़ है जिसके मायने अरबी ज़बान में कई तरह से इस्तेमाल किए जाते है मिसाल के तौर पर हदीस के मायने किसी खबर के , बातचीत के , या कहानी या किसी रिपोर्ट के होते हैं भले ही वो खबर या कहानी या रिपोर्ट झूठी हो या सच्ची , माज़ी की हो या मुस्तकबिल की इससे फर्क नहीं पड़ता । लेकिन हदीस के मायने शरीयत ए इस्लाम में एक खास मायने में इस्तेमाल किया गया है , जिस तरह सलात लफ़्ज़ के मायने दुआ के होते है लेकिन हम इसे नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते है , क्यूंकी सलात को शरीयत ने इसी तरह हमारे सामने पेश किया अब कोई भी सिर्फ दुआ को सलात नहीं बोलता या सलात को दुआ नहीं बोलता है सलात अब एक ख़ास मायनों में इस्तेमाल किया जाता है । इसी तरह ज़कात के मायने पाक साफ करने के होते है लेकिन शरीयत ने इसे ख़ास मायने में इस्तेमाल किया है और ज़कात एक ख़ास तरह की इबादत मानी जाती है । इसीलिए हमे ये ज़रूर समझना चाहिए की किसी लफ़्ज़ का लफ़ज़ी मायने कब इस्तेमाल करने है और शरई मायने कब इस्तेमाल करने हैं। इसको मजीद समझने के लिए हम इसके इस्तेमाल को और समझेंगे ।

हदीस लफ़्ज़ के इस्तेमाल- हदीस लफ़्ज़ का इस्तेमाल कुरान और सुन्नत की रिवायात में काफी बार लफ़ज़ी मायनों में इस्तेमाल हुआ है । यहाँ हम हदीस लफ़्ज़ को कुरानी आयात से समझने की कोशिश करेंगे ।

A-हदीस लफ़्ज़ का इस्तेमाल “कुरान” के लिए –मिसाल के लिए
“फ़जरनी वमन यूकेज़ज़ेबो बेहाज़ल हदीस सनसतदँ रेजुहुम मिन हीसु ला”

“पस जो इस हदीस(कुरान) को झुटलाता है तुम उसको मुझ पर छोड़ दो, हम उसे जल्द इस तरह आहिस्ता आहिस्ता उसे खींचेंगे की उन्हे पता भी न होगा” (सूरह कलम आयत न-44)

इस आयत में अल्लाह ने अपनी कुरान को हदीस लफ़्ज़ का इस्तेमाल करके कुरान को हदीस कहा , यहाँ हदीस का लफ़ज़ी मायने “बातचीत या कलाम ” के मायनों में इस्तेमाल हुआ क्यूंकी कुरान भी अल्लाह का कलाम है इसीलिए अल्लाह ने कुरान न कहकर यहाँ अपने कलाम को हदीस कहा है ।
इसी तरह एक हदीस में भी अल्लाह के रसूल(सल्ल) ने कुरान को अल्लाह की हदीस कहा है:
“ इन्ना अहसनल हदीसे किताबुल्लाही”
“सबसे अहसन हदीस अल्लाह की किताब(कुरान) है “ (सहीह मुस्लिम )

B-“एक तारीख़ी क़िस्से” के इस्तेमाल के लिए-मिसाल के तौर पर:
“वहल आताइका हदीसु मूसा”
“ क्या तुम्हें मूसा की खबर आई?” (सूरह ताहा आयत न- 9)

यहाँ अल्लाह ने हदीस लफ़्ज़ का इस्तेमाल उसके लफ़ज़ी मायने “खबर” के मायनों में इस्तेमाल किया है.

C- हदीस लफ़्ज़ का इस्तेमाल “आम बातचीत” के लिए- मिसाल के लिए:
“जब नबी ने अपनी बीवी से एक राज़ की बात की ” 
(सूरह तहरीम आयत न-3)

यहाँ नबी(सल्ल) ने जो अपनी बीवी से बातचीत की उसके बताने के लिए अल्लाह ने उस बातचीत को हदीस कहा क्यूंकी हदीस के लफ़ज़ी मायने “बातचीत” के भी होते हैं ।

हदीस के आलिम हदीस लफ़्ज़ की वजाहत करते हुए कहते हैं की कोई भी चीज़ जो नबी (सल्ल) से मुंतकिल हो जैसे उनकी की बातचीत , उनका हुक्म , उनके अमल , उनकी किसी बात पर खामोशी , उनकी जिस्मानी खुसुसियत , उनका अंदाज़ , सबको हदीस कहा जाएगा ।

क्यूंकी सब बातचीत में सबसे आला बातचीत नबी (सल्ल) की है , सब अमल में सबसे आला अमल नबी (सल्ल) के है ,सब अंदाज़ो में सबसे अच्छा अंदाज़ नबी (सल्ल) का है ,सब खबर में सबसे आला खबर नबी (सल्ल) की है, इसलिए शरीयत ने हदीस लफ़्ज़ को नबी (सल्ल) के लिए खास कर दिया है अब किसी आम इंसान की बातचीत , उसकी दी हुई खबर , उसके अमल को कभी भी हदीस नहीं कहा जाएगा क्यूंकी हदीस लफ़्ज़ नबी (सल्ल) से मुंतकिल चीज़ों के लिए खास कर दिया गया है ।

हदीस की अहमियत- इस्लाम अल्लाह का भेजा हुआ दीन है जो 1400 सालों में भी एक हर्फ़ की भी मिलावट से महफ़ूज है क्यूंकी इसके हिफाज़त की ज़िम्मेदारी खुद अल्लाह ने ली है , अल्लाह ने हर ज़माने में इन्सानो के रहनुमाई के लिए अपना पैगम्बर भेजा और उसके साथ अपना कलाम भेजा , कई बार ये तो हुआ की पैगंबर आए लेकिन अल्लाह की शरीयत नहीं आई लेकिन यह कभी नहीं हुआ की कोई नई शरीयत आई हो लेकिन पैगम्बर न आया हो । क्यूंकी सिर्फ अल्लाह के कलाम से हुक्म निकालना अपने आप में एक परेशानी हो जाती अगर उसके कलाम में आए हुए हुक्मो को कोई बताने वाला न हो और उस पर अमल करके दिखाने वाला हो। इसीलिए हर उम्मत के को अपने नबी की पैरवी करना फर्ज़ रही , जबकि हम जानते है की इस दुनिया में कुरान अल्लाह का आखिरी कलाम है , आखिरी पैगाम है , और उस पैगाम को लाने वाला आखिरी पैगम्बर है इसीलिए अभी इस उम्मत ए रसूल(सल्ल) पर ये फर्ज़ है की वो अल्लाह के कलाम के साथ साथ उसके पैगम्बर ए इस्लाम की पैरवी भी पैरवी को फर्ज़ समझे इसका मतलब यह हैं अपने पैगंबर से मुंतकिल सब चीज़े, यानि हदीस को मानना भी इस उम्मत पर फर्ज़ है ।

हदीस की अहमियत इतनी है की बिना इसके इस्लाम का दीन होना न मुमकिन है आइए इसको मजीद समझने की कोशिश करे की कैसे हदीस इस्लाम का अहम सुतुन है और कैसे इसको मानना उतना ही फर्ज़ है जितना कुरान को फर्ज़ मानना । हदीस कि अहमियत अनगिनत मायनों में है लेकिन यहाँ हम कुछ का ज़िक्र करेंगे ताकि कुछ मजीद वजाहत हो जाए:

1-वही ए इलाही- यहाँ ये जानना ज़रूरी है की नबी (सल्ल) कि कही हुई बात, और उनके अमल की बुनियाद ख़ालिस वही ए इलाही है, इसलिए हमारे लिए रहनुमाई के जो ज़राए है उसमे बुनियादी ज़राए कुरान के साथ साथ हदीस भी है , इस बात को अल्लाह ने ही कुरान में वाजेह किया है :

“(मुहम्मद) अपनी नफ़्स(ख़्वाहिश) से नहीं बोलते बल्कि असलियत में वो “वही” है जो उनकी तरफ भेजी जाती है “ 
( सूरह नज़्म आयत न-3-4)

अब हदीस को यह कहा जा सकता है कि यह वो “वही” है जो अल्लाह ने अपने रसूल को ज़ाती तौर से अता की है । इसी बात को अल्लाह के रसूल(सल्ल) ने अपनी एक हदीस में बड़े साफ अंदाज़ में बयान किया है

"रसूल(सल्ल) ने फरमाया  “यकीनन मुझे कुरान के साथ साथ इस जैसी एक और चीज़ दी गयी है “ 
(अबु दाऊद) ।

2-तफ़सीर- जैसा कि हम जानते है अल्लाह ने अपने कलाम कि हिफाज़त का ज़िम्मा खुद लिया है लेकिन हिफाज़त किन मायनों में इसको समझना ज़रूरी है , और उससे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि किसी चीज़ की हिफाज़त क्यूँ की जाती है ?।

हिफाज़त हमेशा उस चीज़ की जाती है जिसको हम मुस्तकबिल के लिए हम अपने पास रखना चाहते है और उस चीज़ की हम उसको उसी शक्ल में मुस्तकबिल में पाना चाहते हैं , और इसके लिए ज़रूरी है की उसकी लगातार निगरानी की जाए ताकि न उसमे कोई मिलावट आए और न ही उसमे कोई उसके गिरावट आए। जब हम कुरान की बात करते हैं सबसे पहले ये जाने की कुरान क्या है ? कुरान अल्लाह ने इन्सानो के रहनुमाई के लिए भेजा इसलिए ज़रूरी यह है इसका पैगाम सही मायनों में इन्सानों तक पहुचे क्यूंकी कुरान में अल्लाह के अल्फ़ाज़ है अब अगर अल्लाह सिर्फ उन अल्फ़ाज़ों की हिफाज़त का ज़िम्मा लेगा तो उसके मायनों की तावील और तफ़सीर इंसान कहाँ से करेगा , क्या इंसान अपने ख़्वाहिश के मुताबिक उसकी तावील करने के लिया आज़ाद है ? क्या वो कुरान को मनमाने ढंग से समझने के लिए आज़ाद है ? अगर वो आज़ाद है तो कुरान की सिर्फ अल्फ़ाज़ों की हिफाज़त का क्या फायेदा क्यूंकी फिर रहनुमाई इलाही हिदायत के मुताबिक न होगी बल्कि अपने ख्वाहिशे नफ़्स के मुताबिक हो जाएगी ,और कुरान अपने ख्वाहिशे नफ़्स पर चलने के लिए मना करता है क्यूंकी इंसानी ज़िंदगी का मक़सद अल्लाह की इबादत है और इबादत का मतलब अपनी ख्वाहिशों को कुर्बान करके अल्लाह के अहकाम पर चलना है। इसलिए यहाँ ये बात समझ में आती है की जब अल्लाह यह कहता है की उसने कुरान की हिफाज़त का ज़िम्मा लिया है तो वहाँ यह महज़ अल्फ़ाज़ की हिफाज़त नहीं है बल्कि उन अल्फ़ाज़ों से जो अहकाम निकलते है , उन अल्फ़ाज़ों के जो  मफ़हूम निकलकर आता है इन सबकी ज़िम्मेदारी अल्लाह ने ली है । इसलिए अल्लाह ने कुरान के साथ एक नबी(सल्ल) भेजा ताकि उसकी कुरान के अल्फ़ाज़ सिर्फ अल्फ़ाज़ न रह जाए बल्कि उसके अल्फ़ाज़ों के मफ़हूम और उसके अहकाम किस तरह अदा करने है उसका एक ज़िंदा नमूना लोगो के सामने आ जाए , इसीलिए ये ज़रूरी है की सिर्फ अल्फ़ाज़ की हिफ़ाज़त नहीं बल्कि उसके मफ़हूम की भी हो ताकि दुनिया में कोई इकतेलाफ़ की हुज्जत न हो , ज़ाहिर है दुनिया में जितने नबी(सल्ल) से पहले नबी आए वो सब एक खास वक़्त और एक खास लोगो के बीच आए थे इसीलिए उनके जमाने में ये कभी नहीं हुआ की उनके उम्मत ने अपने नबी के अमल , उनके कौल को भी लेखा जोखा बनाया हो और आने वाले वक़्त के लिए संभालकर रखा हो । क्यूंकी उनकी उम्मत को पता था की ये नबी सिर्फ इसी वक़्त के लिए है और नबी अभी खुद मौजूद है किसी बात पर को समझने में या मफ़हूम समझने में कोई गलती होगी तो नबी खुद ब खुद उसे ठीक कर देगा , और नबी के जाने के बाद कोई दूसरा नबी आ जाएगा आगे की रहनुमाई के लिए । लेकिन अल्लाह ने इस दुनिया के लिए आखिरी नबी मुहम्मद (सल्ल) को भेज दिया और अब उसके बाद कोई नबी नहीं आना था इसलिए अल्लाह ने न सिर्फ अल्फ़ाज़ बल्कि उससे निकले हुए अहकाम और उनके मफ़हूम को सीरत और हदीस की शक्ल में आज तक महफ़ूज रखा हुआ है ।

कई लोगो का मुतालबा है की जब कुरान हमारे पास है तो हम हदीस को क्यूँ माने वो पूछते है क्या कुरान अधूरी किताब है? या कुरान में दुनिया के मसाइल के हल नहीं है ? लेकिन ये सवाल करते वक़्त वो नबी कि अहमियत को भूल जाते है और ये भूल जाते है कि नबी का भेजे जाने का क्या मक़सद होता है , अगर किताब ही भेजनी होती तो अल्लाह सीधे सीधे कहीं उतार देता फिर लोग अपने हिसाब से उसे समझते लेकिन अल्लाह ने किताब के साथ उसकी तफ़सीर करने वाला भी साथ भेजा ताकि वो लोगो को उसकी किताब को समझाये और उसकी तफ़सीर बयान करे , इसलिए नबी(सल्ल) से मुंतकिल जितनी चीज़े हैं वो सब हदीस है और मफ़हूम के हिसाब से हदीस भी कुरान का हिस्सा है यानि हदीस कुछ नहीं है मगर कुरान की तफ़सीर है बिना रसूल(सल्ल) की तफ़सीर के , बिना उनके बताए हुए मफ़हूम के , और बिना उनके दिखाये  गए हुए तरीके को माने कुरान को समझ पाना न मुमकिन है क्यूंकी इस्लाम की बुनियाद के तराजू के एक पल्ले में तौहीद है और दूसरे पल्ले में रिसालत है । दोनों पल्लो का बराबर होना लाज़मी है। इसी बात को कुरान अपने इन अल्फ़ाज़ों में ब्यान करता है।

“और अब यह याददिहानी(कुरान) तुमपर नाज़िल की है ताकि तुम लोगों के सामने खोलखोल कर बयान कर दो जो कुछ भी उनकी तरफ उतारा गया है और ताकि वे सोच विचार करे” 
(सूरह नहल आयत न-44)

3-अखलाक- हम यह जानते हैं की रसूल(सल्ल) की ज़िंदगी का हर एक पहलू अल्लाह की वही के मुताबिक है , उनका किरदार , उनका माशरी ज़िंदगी सब कयामत तक के लिए हमारे लिए बेहतरीन नमूना है , इसी चीज़ को कुरान भी अपने इन अल्फ़ाज़ों में कहता है

“नबी की ज़िंदगी में तुम्हारे लिए बेहतरीन नुमुना है “
(सूरह न-33 आयत न-21)

अब अगर हम अपने रसूल(सल्ल) की रोज़मर्रा की ज़िंदगी को देखना चाहते है तो हमारे पास हदीस की तरफ रुख करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है क्यूंकी रसूल की पूरी ज़िंदगी हदीसों में दर्ज है , इसलिए कुरान के बताए हुए अखलाक के मेराज को देखने के लिए हम रसूल की ज़िंदगी यानि हदीस को ही अपनी मंज़िल बनाएँगे । अख्लाक़ को नहीं समझा जा सकता अगर हम सीरत को न समझे , और हम सीरत को नहीं समझ सकते जब तक की हदीस को न पढे , यानि हदीस इस्लाम को वो हिस्सा है जिसके बिना इस्लाम अधूरा है ।

4-ज़िंदगी के लिए कानून – ज़िन्दगी के हर लम्हे में इंसान कुछ न कुछ फैसला करता है, इंसानी ज़िन्दगी में हर अमल से पहले उस अमल के लिए गए फैसले उसके अमल पर हावी होते है इसीलिए ईमान वालों को हुक्म है की वो अपने ज़िन्दगी के सारे फैसले अपने रसूल(सल्ल) से कराये क्यूंकी किसी भी उम्मत के रसूल उस उम्मत के लिए रहनुमा हुआ करते हैं, दूसरी चीज़ रसूल(सल्ल) के नुजुल के मक़सद में से एक जो अहम मक़सद है वो ये है कि वो लोगो के ज़िन्दगी के आए हुए मामलात में अपना फैसला सुनाये । इसीलिए कुरान नबी(सल्ल) से कहता है कि

“ ये तब तक ईमान वाले नहीं हो सकते जब तक कि ये तुमसे हर मामले में फैसला न कराये और जब तुम इनके बीच फैसला कर दो , इनके दिल उस पर कोई कसक न महसूस करे ।“
(सूरह न-4 आयत न-65)

कुरान कि इस आयत से ये साफ है कि उम्मत पर ये फर्ज़ है कि वो अपनी ज़िन्दगी के फैसले रसूल (सल्ल) से कराये यानि रसूल(सल्ल) के ज़िन्दगी से अखज़ करे, इसलिए इस्लामी निज़ाम में अदालती निज़ाम को बैगर हदीस के नहीं चलाया जा सकता । मिसाल के तौर पर कुरान में चोर के हाथ काटने का हुक्म है , लेकिन इसी हुक्म को इस्लामी निज़ाम में अपनाने के लिए हमे सीरत में ये देखना होगा की चोर का कितना हाथ काटना होगा , आधा , चौथाई ,या पूरा ? हदीस असल में हुक्म के निफ़ाज़ का तरीके को बताता है, इस्लामी कानून के समझ के लिए और उसके निफ़ाज़ के लिए बिना रसूल(सल्ल) से फैसला कराये हम ईमान वाले नहीं हो सकते । क्यूंकी हमारा ईमान रसूल(सल्ल) की पैरवी पर टिका है।

अल्लाह का शुक्र है कि अल्लाह ने न सिर्फ हमको कुरान दी है बल्कि उसके पैगाम को , उसके मफ़हूम को , उसकी तफ़सीर को , उसके मायने को , ज़िंदा नमूना के तौर पर अल्लाह के रसूल(सल्ल) को हमारे सामने भेज दिया ताकि उसकी रहनुमाई हम पर वजह हो जाए और हम पर कोई और हुज्जत न बचे , अल्लाह हमको रहे हक़ पर बनाए रखे ,कुरान और सीरत से हमे रहनुमाई मिलती रहे । और यह तभी होगा जब हम कुरान कि इस आयत पर खासकर अमल करेंगे –

“और जो तुम्हें रसूल दे उसे ले लो और जिससे रसूल तुमको रोके उससे रुक जाओ , और तुम अल्लाह से डरो , बेशक अल्लाह सख़्त सज़ा देने वाला है “
(सूरह हश्र आयत न-7)

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