माह मुहर्रम की नवीं व दसवीं तारीख़ जबर्दस्त अहमियत और इबादत का दिन है। इस दिन हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने नफ़ली रोजे़ रखने का हुक्म दिया है। मातम व मौजूदा रस्म -रिवाज और खुराफ़ात का इस्लाम धर्म से कोई वास्ता (सम्बन्ध) नहीं है।
पवित्र कुरआन में है-‘‘इस्लाम वह धर्म है जो सबसे अच्छा और सीधा रास्ता दिखाता है।‘‘
लेकिन अत्यन्त खेद व दुःख के साथ यह हक़ीक़त सुपुर्दे क़लम की जा रही है कि हिजरी सन् के इक्कीवीं वर्ष के प्रारम्भ में कर्बला में जो दर्दनाक हादसा पेश आया बाद के अमीरों (शासकों) ने सियासी रंग देकर अपनी हुकूमत क़ायम रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी जिसकी वजह से मुहर्रम की हुर्मत (मर्यादा) खत्म होती गई। और योम-ए-आशूरा (दसवीं मुहर्रम) जो इबादत का एक ख़ास दिन है, को शहादते हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु को नज़र कर दिया और इस तरह से मुसलिम कौ़म को एक इन्तिहाई रहमत व इबादत के दिन से महरूम (वंचित) करके ग़म व मातम और अनेक खुराफ़ातों के जाल में जकड़ दिया।
हदीस शरीफ़ में है कि-“दीन (इस्लाम) में अपनी तरफ से कोई नया काम निकाला जाय वह बिदअ़त है और बिदअत गुमराही है और हर गुमराही जहन्नम में ले जाने वाली है। (बुखारी)
उपर्युक्त हदीस की रू (संदर्भ) में अगर आज हम मुसलिम कौ़म को देखें तो मुसलमानों की एक बड़ी तादाद (संख्या) बिदअ़त में फंसी नजर आयेगी। इसका एक बड़ा कारण मुसलमानों में जाहिलियत के सिवाय और क्या हो सकता है।
सुन्नी मुसलमानों की एक बड़ी तादाद मौलाना रजा खां बरेल्वी से अकी़दत रखती है लेकिन आश्चर्य है इसके बावजूद वह मुहर्रम की खुराफात में खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते है | हालांकि मौलाना रजा खां बरेल्वी ने भी ऐसी खुराफातों से मना किया है और इन्हें बिदअत और नाजायज व हराम लिखा है और ताजिये देखने से भी मना किया है।
चुनांचे उनका फ़तवा है |ताजिया आता देखकर एराज व रूगर्दानी कर (मुंह फेर) लें उसकी ओर देखना ही न चाहिए। (इरफाने शरियत भाग1 पृ015)और पृष्ठ 16 पर एक सवाल के जवाब में कहते हैं कि
मुहर्रम पर मर्सिया पढ़ना नाजायज है वह मनाही और मुनकरात (नास्तिकता) से पुर होते हैं।इनका एक रिसाला (पत्रिका) है। इसके पर लिखते हैं |
ताजिये पर चढ़ाया हुआ खाना न खाना चाहिए अगर नियाज़ देकर चढ़ायें या चढ़ाकर नियाज़ दें इस पर भी ऐतराज करें। ( ताजियेदारी पृ0 11 )
फिर यह सब सिर्फ बिदअत ही नहीं बल्कि इससे भी बढ़कर यह षिर्क (अनेकेश्वरवाद) व बुत परस्ती क अन्तर्गत आ जाती है क्योंकि प्रथम तो हुसैन (रजिअल्लाहो अन्हु) की रूह आत्मा को मौजूद समझा जाता है। इसी प्रकार मज़ारों में पीरों-फक़ीरों के बारे में भी ऐसा ही समझा जाता है तभी तो उनको काबिले ताज़ीम समझते हैं और उनसे मदद मांगते हैं। हालांकि किसी बुजुर्ग की रूह (आत्मा) को हाज़िर व नाज़िर (विद्यमान) जानना और आलिमुल गै़ब (छुपी बातों को जानने वाला) समझना शिर्क और कुफ्र है।
चुनांचे हनफ़ी मजहब की विश्वसनीय किताब में लिखा है,जो शख्स यह विश्वास रखे कि बुजुर्गों की रूहें हर जगह हाजिर व नाजिर है। और ज्ञान रखती हैं, वह काफिर (नास्तिक) है। ( फताबा बजाजिया )
द्वितीय, ताजिया परस्त ताजियों के सामने सिर झुकाते हैं जो सजदे के अन्तर्गत ही आता है और कई लोग तो खुल्लम-खुल्ला सजदा बजा लाते हैं और गैर अल्लाह (अल्लाह के अतिरिक्त) को सजदा करते हैं, चाहे वह इबादत के तौर पर हो या ताजीम (आदर) के लिए, खुला शिर्क है।
चुनांचे अल्लाम क़हसतानी हनफी फरमाते हैं कि-गैर अल्लाह को सजदा करने वाला बिल्कुल काफिर है, सजदा इबादतन हो या ताजीमन। (रद्दुल मुख़्तार)
शीओं ने इस हुक्म का पालन खुशी से किया मगर सुन्नी दम-बखुद और खामोश रहे, क्योंकि शीओं की हुकूमत थी।
इसके बाद शीओं ने हर साल इस रस्म को अमल में लाना शुरू कर दिया और आज तक इसका रिवाज हिन्दुस्तान में हम देख रहे हैं। अजीब बात यह है कि हिन्दुस्तान में अक्सर सुन्नी लोग भी ताजिया बनाते हैं।‘(तारीखे इस्लाम अकबर नजीबाबादी पृ0 66 जिल्द 2 प्रकाशित कराची)
हजरत उसमान रजिअल्लाहो अन्हु जो मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के दामाद थे उनकी भी दर्दनाक शहादत कुरआन पढ़ते में हुई। एक और मुख्य बात हजरत अली रजिअल्लाहो अन्हु, जो हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु के पिता और मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के दामाद थे, की भी दर्दनाक शहादत हुई। अब गौ़र तलब बात है कि इनके बेटे हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु ने शहादत क्यों नहीं मनाई तो फिर हजरत हुसैन रजिअल्लाहो अन्हु की शहादत क्यों मनाई जाती है?
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