भारत में इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के सूफ़ियों और नुमाइंदों ने एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं बरेलवी समुदाय ने इसके लिए वहाबी विचारधारा को ज़िम्मेदार ठहराया। इन आरोप-प्रत्यारोप के बीच सभी की दिलचस्पी इस बात में बढ़ गई है कि आख़िर ये वहाबी विचारधारा क्या है। लोग जानना चाहते हैं कि मुस्लिम समाज कितने पंथों में बंटा है और वे किस तरह एक दूसरे से अलग हैं?
आइये देखते है इस्लाम में मुस्लिम समाज और फिरके की हैसियत क़ुरान और हदीस की रौशनी में किया है ?
अल्लाह का क़ुरआन में हुकुम –और तुम सब के सब (मिलकर) अल्लाह की रस्सी मज़बूती से थामे रहो और आपस में (एक दूसरे के) फूट ना डालो। (सूरह आलि इमरान 3:103)अल्लाह ने क़ुरआन में फ़रमाया –
जिन लोगों ने अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और स्वयं गिरोहों में बँट गए, तुम्हारा उनसे कोई संबंध नहीं । उनका मामला तो बस अल्लाह के हवाले है । फिर वह उन्हें बता देगा, जो कुछ वे किया करते थे। (सूरह अनआम 6:159)
इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक इतिहास की अपनी-अपनी समझ के आधार पर मुसलमान कई पंथों में बंटे हैं।
बड़े पैमाने पर या संप्रदाय के आधार पर देखा जाए तो
मुसलमानों को दो हिस्सों – सुन्नी और
शिया में बांटा जा सकता है।
हालांकि सुन्नी और शिया भी कई फ़िरक़ों या पंथों में बंटे हुए हैं।
बात अगर शिया-सुन्नी की करें तो दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह एक है, मोहम्मद (ﷺ) साहब उनके दूत हैं और क़ुरान आसमानी किताब यानी अल्लाह की भेजी हुई किताब है। लेकिन दोनों समुदाय में विश्वासों और पैग़म्बर मोहम्मद (ﷺ) की मौत के बाद उनके उत्तराधिकारी के मुद्दे पर गंभीर मतभेद हैं। इन दोनों के इस्लामिक क़ानून भी अलग-अलग हैं।
सुन्नीसुन्नी या सुन्नत का मतलब उस तौर तरीक़े को अपनाना है। जिस पर पैग़म्बर मोहम्मद (ﷺ) साहब (570-632 ईसवी) ने ख़ुद अमल किया हो और इसी हिसाब से वे सुन्नी कहलाते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक़, दुनिया के लगभग - 80-85% प्रतिशत मुसलमान सुन्नी हैं।
जबकि
15-20% प्रतिशत के बीच शिया हैं।
पैग़म्बर मोहम्मद (ﷺ) के बाद उनके ससुर हज़रत अबु-बकर (632-634 ईसवी) मुसलमानों के नए नेता बने, जिन्हें ख़लीफ़ा कहा गया।
इस तरह से अबु-बकर के बाद हज़रत उमर (634-644 ईसवी),
हज़रत उस्मान (644-656 ईसवी) और
हज़रत अली (656-661 ईसवी) मुसलमानों के नेता बने।
इन चारों को ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन यानी सही दिशा में चलने वाला कहा जाता है। इसके बाद से जो लोग आए, वो राजनीतिक रूप से तो मुसलमानों के नेता कहलाए लेकिन धार्मिक एतबार से उनकी अहमियत कोई ख़ास नहीं थी।
जहां तक इस्लामिक क़ानून की व्याख्या का सवाल है।
सुन्नी मुसलमान मुख्य रूप से चार समूह में बंटे हैं।
हालांकि पांचवां समूह भी है जो इन चारों से ख़ुद को अलग कहता है।
इन पांचों के विश्वास और आस्था में बहुत अंतर नहीं है, लेकिन इनका मानना है कि उनके इमाम या धार्मिक नेता ने इस्लाम की सही व्याख्या की है।
आठवीं और नवीं सदी में लगभग 150 साल के अंदर चार प्रमुख धार्मिक नेता पैदा हुए। उन्होंने इस्लामिक क़ानून की व्याख्या की और फिर आगे चलकर उनके मानने वाले उस फ़िरक़े के समर्थक बन गए।
ये चार इमाम थे –
- इमाम अबू हनीफ़ा (699-767 ईसवी)
- इमाम शाफ़ई (767-820 ईसवी)
- इमाम हंबल (780-855 ईसवी)
- इमाम मालिक (711-795 ईसवी).
देवबंदी और बरेलवी
दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो ज़िलों, देवबंद और बरेली के नाम पर है। दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता –
मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और
अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की।
मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही और मौलाना क़ासिम ननोतवी ने 1866 में देवबंद मदरसे की बुनियाद रखी थी।
देवबंदी विचारधारा को परवान चढ़ाने में –- मौलाना अब्दुल रशीद गंगोही
- मौलाना क़ासिम ननोतवी और
- मौलाना अशरफ़ अली थानवी, की अहम भूमिका रही है।
- भारत।
- पाकिस्तान।
- बांग्लादेश। और
- अफ़ग़ानिस्तान। में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों का संबंध इन्हीं दो पंथों से है।
वहीं बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए तरीक़े को ज़्यादा सही मानते हैं। बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है।
दोनों में कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं लेकिन कुछ चीज़ों में मतभेद हैं। जैसे बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बरवहीं देवबंदी इसमें विश्वास नहीं रखते। देवबंदी अल्लाह के बाद नबी को दूसरे स्थान पर रखते हैं लेकिन उन्हें इंसान मानते हैं। बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है जबकि देवबंदियों के पास इन मज़ारों की बहुत अहमियत नहीं है, बल्कि वो इसका विरोध करते हैं।
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